मैं, डा. राकेश शरद, घोषणा करता हूँ कि मैं व्यंग्य क़ी शरण में हूँ. व्यंग्य ही
मेरे लिए बुद्धत्व है.समझो क़ी मैं बोध को प्राप्त हूँ. आओ तुम भी
बोलो...व्यंग्यम शरणम गच्छामि !
वाह व्यंग्य गुरू, विकास के नाम पर देश का जो बंटाधार हो रहा है। उसका आपने सही चित्र प्रस्तुत किया है। अफसोस इस बात का है कि इतने शोषण और अत्याचार व भ्रष्टाचार के बावजूद जनता मौन क्यों है। हमें लगता नहीं कि कभी यहां क्रांति होगी। लेकिन कवि को अपने दायित्व को निभाना नहीं छोडना चाहिए।
वाह व्यंग्य गुरू, विकास के नाम पर देश का जो बंटाधार हो रहा है। उसका आपने सही चित्र प्रस्तुत किया है। अफसोस इस बात का है कि इतने शोषण और अत्याचार व भ्रष्टाचार के बावजूद जनता मौन क्यों है। हमें लगता नहीं कि कभी यहां क्रांति होगी। लेकिन कवि को अपने दायित्व को निभाना नहीं छोडना चाहिए।
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